आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
|
7 पाठकों को प्रिय 370 पाठक हैं |
अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
प्रसुप्त दिव्य शक्तियों का भण्डार मानवी काया में बीज रूप में प्रचुर परिमाण में विद्यमान है। दैनिक क्रिया-कलाप में उनका बहुत छोटा भाग ही प्रयुक्त हो पाता है। जो वस्तु निष्क्रिय पड़ी रहती है, वह अपनी क्षमता खो बैठती है। पड़े रहने वाले चाकू को जंग खा जाता है। कोठों में बन्द अनाज को कीड़े लग जाते हैं। बक्से में बन्द कपड़े अनायास ही सड़ने लगते हैं। खाली पड़े रहने वाले मकानों में सीलन-सड़न चढ़ती है और चूहे, छडूंदर, चमगादड़ जैसे जीव उसे और भी जल्दी खस्ता हाल बना देते हैं। मानव दिव्य शक्तियों के बारे में भी यही बात है। वह पेट-प्रजनन भर के लिए दौड़-धूप करता है। इतने छोटे काम में शक्तियों का लघु अंश ही काम आता है। शेष उपेक्षित स्थिति में पड़ा-पड़ा निष्क्रिय-निर्जीव हो जाता है। यदि इस प्रसुप्ति को जागृति में परिणत किया जा सके, तो मनुष्य सामान्य व्यक्ति न रहकर मनीषी, योगी, तपस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी स्तर का महामानव सिद्ध पुरुष बन सकता है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में विद्यमान अगणित प्रसुप्त बीजों को जाग्रत् कैसे किया जाय ? इसके लिए साधना वर्ग के दो प्रयोजन ही कार्यान्वित करने होते हैं-एक तप दूसरा योग। इनके दार्शनिक और क्रियापरक कितने ही स्वरूप हैं। अपनी स्थिति और सुविधा के आधार पर उनमें से इस विषय में रुचि लेने वाले अपने लिए मार्ग चयन करते हैं और तत्परता, तन्मयता अपनाकर संकल्पपूर्वक अभीष्ट लक्ष्य की ओर साहसिक प्रयाण करते हैं।
आत्मोत्कर्ष की साधनाओं के लिए मात्र कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं है। उसके लिए उपयुक्त वातावरण भी चाहिए। बीज कितना ही उत्तम क्यों न हो, पर उसे विकसित-पल्लवित होने का अवसर तभी मिलता है, जब भूमि उपजाऊ हो। खाद-पानी की व्यवस्था हो और देखरेख करने वाले व्यक्ति का संरक्षण मिले। विशेष क्षेत्र में विशेष प्रकार के फल, शाक, अन्न, वृक्ष, वनस्पति जीव-जन्तु आदि जन्मते हैं। हर जगह, हर वस्तु का उत्पादन एवं विकास नहीं होता। योग और तप के लिये यों कोई भी स्थान अपनाया जा सकता है। "सभी भूमि गोपाल की" वाली उक्ति के अनुसार मन चंगा होने पर कठौती में गंगा प्रकट हो सकती है। फिर भी विशेष स्थानों का विशेष महत्त्व बना रहेगा। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सिद्ध पुरुषों के संरक्षण की त्रिविध विशेषताएँ जिन्हें भी उपलब्ध होती हैं, वे अपनी साधना को सिद्धि में बदलने में अधिक सफलता प्राप्त करते देखे गये हैं।
इस प्रयोजन के लिये हिमालय का उत्तराखण्ड क्षेत्र अधिक उपयुक्त सिद्ध होता है, इसलिए कितने ही मुमुक्षु इस क्षेत्र में अन्न-जल-आच्छादन की सुविधा देखकर अपने काम चलाऊ कुटीर बना लेते हैं। उनमें साधनारत रहते हैं। कभी-कभी इन साधकों में कुछ सम्पन्न जन भी होते हैं। वे प्रेरणा पर उन्हीं कुटीरों के ईर्दगिर्द देवालय बना देते हैं। कालान्तर में वह किसी पुरातन कथा-प्रसंग से जुड़ जाता है, दर्शनार्थी आने लगते हैं और भूमि का, भवन का, परिवार का विस्तार होने लगता है। कई साधन सम्पन्न ऐसे स्थानों में अपने दान का स्मारक बनाने में अधिक उपयोगिता समझते हैं। घने शहरों में घिचपिच अनेकों देवालय, धर्मशालाएँ बने रहते हैं। उनके बीच किसी एक का विशेष स्मरण रह सकना सम्भव नहीं होता। यश न हो, तो दानी अपने व्यय को क्यों सार्थक माने? इस दृष्टि से हिमालय के वीरान क्षेत्र में देवालयों की स्थापना अधिक आकर्षक बन जाती है, विशेषतया तब, जबकि उसके साथ किसी पौराणिक कथा-गाथा का इतिहास जुड़ सके।
|
- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
- अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
- अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
- पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
- तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
- सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
- सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
- हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ